संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटाने की याचिकाओं पर SC जल्द आदेश पारित करेगा
अनादि न्यूज़ डॉट कॉम, नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि वह भारतीय संविधान की प्रस्तावना से ‘ धर्मनिरपेक्ष ‘ और ‘ समाजवादी ‘ शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर 25 नवंबर को आदेश पारित करेगा । भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि भारतीय अर्थ में समाजवादी होने का मतलब केवल “कल्याणकारी राज्य” है। पीठ ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और 42वें संशोधन की सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी जांच की है। शीर्ष अदालत भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, वकील बलराम सिंह, करुणेश कुमार शुक्ला और अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। इससे पहले भी पीठ ने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना जाता रहा है और मौखिक रूप से कहा था कि प्रस्तावना में ‘ धर्मनिरपेक्ष ‘ और ‘ समाजवादी ‘ को पश्चिमी चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है।
पीठ ने कहा था, “समाजवाद का अर्थ यह भी हो सकता है कि अवसर की समानता हो और देश की संपत्ति का समान वितरण हो। आइए पश्चिमी अर्थ न लें। इसका कुछ अलग अर्थ भी हो सकता है। धर्मनिरपेक्षता शब्द के साथ भी यही बात है।” याचिकाकर्ताओं में से एक भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा था कि 1976 में प्रस्तावना में शामिल किए गए दो शब्दों पर मूल प्रस्तावना की तारीख अंकित नहीं हो सकती , जिसे 1949 में तैयार किया गया था।
स्वामी ने अपनी याचिका में कहा था कि आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से प्रस्तावना में शामिल किए गए दो शब्द 1973 में 13 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा प्रसिद्ध केशवानंद भारती फैसले में बताए गए मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं, जिसके द्वारा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को संविधान की मूल विशेषताओं के साथ छेड़छाड़ करने से रोक दिया गया था। स्वामी ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने संविधान में इन दो शब्दों को शामिल करने को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था और आरोप लगाया था कि ये दो शब्द नागरिकों पर तब भी थोपे गए जब संविधान निर्माताओं का लोकतांत्रिक शासन में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष अवधारणाओं को शामिल करने का कभी इरादा नहीं था। यह तर्क दिया गया कि इस तरह का समावेश अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति से परे था।
आगे कहा गया कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने इन शब्दों को शामिल करने को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि संविधान नागरिकों के चयन के अधिकार को छीनकर उन पर कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ नहीं थोप सकता।