बिमलेंद्र तिवारी, अनादि न्यूज़ डॉट कॉम, धर्मं दर्शन। सत्पात्र गुरुकृपा पाने का अधिकारी
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
दैवी अनुग्रह का मूल्य कम नहीं है, परंतु उस अनुग्रह को आत्मसात् कर पाने के लिए जिस स्तर की पात्रता आवश्यक होती है, उसका मूल्य अनुग्रह से भी ज्यादा बढ़ कर हो जाता है। बादल बरसते हैं, पर उनके बरसने का लाभ न टीले ले पाते हैं और न चट्टानें, बल्कि उनका लाभ तो मात्र गड्ढों को ही मिल पाता है। बरतन उलटा रखा हो तो मूसलाधार बारिश भी उसे भर नहीं सकती। उसे भरने के लिए पात्र को ग्रहणशील होना जरूरी है।शिष्य सत्पात्र हो तो एकलव्य की तरह से उच्च कोटि का धनुर्धर बन सकता है। स्पष्ट है कि गुरु की महत्ता जितनी आवश्यक है, उससे कहीं ज्यादा आवश्यकता- शिष्य की श्रद्धा, सद्भावना की है। यदि शिवाजी ने सिंहनी का दूध लाकर अपनी पात्रता सिद्ध न की होती तो क्या समर्थ गुरु रामदास, उन्हें छत्रपति बनवाने का अनुग्रह कर सकते थे ? बिना चंद्रगुप्त के समर्पण के चाणक्य उन्हें भारत का सिरमौर कैसे बनवा सकते थे ? यदि नरेंद्र माँ काली से ज्ञान-भक्ति-वैराग्य की कामना न करते तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस के लिए उनको विवेकानंद बना पाना संभव कैसे होता ? गुरु की कृपा पाने का अधिकारी शिष्य मात्र तब बन पाता है, जब वह सत्पात्र हो। गुरु, अपना तप-पुण्य-प्राण, शिष्य को हस्तगत कराते हैं। पैसा तो घंटे भर में भी कमाया जा सकता है, पर पुण्य अर्जित करने में युगों निकल जाते हैं। वह पुण्य यदि कुपात्र को, अयोग्य को दे दिया जाए तो इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या हो सकता है ? साधना की सफलता इसी में है कि हम स्वयं को सत्पात्र बना सकें। बिना स्वयं को सत्पात्र बनाए, सारी साधना यों ही व्यर्थ चली जाती है।