संदीप गौतम, अनादि न्यूज़ डॉट कॉम, धर्म-दर्शन । अंत:करण में भगवान का वास होता है, तभी भगवान की असीम कृपा जीव को प्राप्त होती है और उसे इसकी अनुभूति होती है। भगवान की असीम कृपा कैसे प्राप्त हो ? इसके लिए भौतिक पूजा के विधान धर्म शास्त्रों में बताए गए हैं, इनका अपना ही महत्व है। भौतिक पूजा आवश्यक भी है, लेकिन किन्हीं परिस्थितियों में आप भौतिक पूजा करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं तो वाराह, मुगदल, नारद आदि पुराण आदि धर्मशास्त्रों में मानसिक पूजा का वर्णन किया गया है, मानसिक पूजा का अपना ही महत्व बताया गया है, लेकिन इसका आशय यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भौतिक पूजा नहीं करनी चाहिए। अपने आराध्य, इष्टदेव के पूजन की यूं तो अनेक विधियां हैं, किंतु मानस पूजा का अपना महत्व है। मानस पूजा का अर्थ भगवान का पूजन भौतिक वस्तुओं से न करते हुए मानसिक प्रकार से पूजन करना। वस्तुत: भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं। संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध ही नहीं हैं जिनसे ईश्वर की पूजा की जा सके। इसलिए पुराणों में मानस पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। कहा गया है मानस पूजा करने से भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा हजार गुना अधिक फल प्राप्त होता है।
मानस पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को मुक्तामणियों से मंडितकर स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान करता है। स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं। पृथ्वी रूपी गंध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य के लिए कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्ण कमल पुष्पों का चयन करता है। भावना से वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य भगवान को अर्पण करता है। इसके साथ ही त्रिलोक की संपूर्ण वस्तु सभी उपचार सच्चिदानंदघन परमात्म प्रभु के चरणों में भावना से अर्पण करता है। इस प्रकार मानस पूजा संपन्न की जाती है।
मानसपूजा की एक संक्षिप्त विधि पुराणों में वर्णित है-
ऊं लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि।
प्रभो ! मैं पृथ्वीरूप गन्ध चंदन आपको अर्पित करता हूं।
ऊं हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि। प्रभो !
मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूं।
ऊं यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि। प्रभो !
मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूं।
ऊं रं वह्नयात्मकं दीपं दर्शयामि। प्रभो !
मैं अग्निदेव के रूप में दीपक आपको प्रदान करता हूं।
ऊं वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। प्रभो !
मैं अमृत के समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूं।
ऊं सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि। प्रभो !
मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूं।
इन मंत्रों से भावनापूर्वक मानस पूजा की जा सकती है। मानस पूजा से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है। इससे बाह्य पूजा में भी रस मिलने लगता है। यद्यपि इसका प्रचार कम है तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिए।