अनादि न्यूज़ डॉट कॉम, धर्म-दर्शन।आमतौर पर लोग हवन तो कर लेते हैं किंतु उनमें मुद्राओं का प्रयोग नहीं करते। हवन करते समय जितना महत्व मंत्रों और हवन सामग्री का होता है, उतना ही महत्व विभिन्न मुद्राओं का भी है। मुद्राओं के प्रयोग के बिना हवन व्यर्थ हो जाता है, उसका पूरा फल प्राप्त नहीं हो पाता है। हवनकाल में आहुति प्रदान करने से पूर्व जिस प्रकार वैदिक मंत्रोच्चर आवश्यक होता है उसी प्रकार मुद्राओं के प्रयोग भी आवश्यक होते हैं। मंत्रहीन एवं मुद्राविहीन होम का पूर्णरूपेण फल साधक को प्राप्त नहीं होता है।
ये मुद्राएं आवश्यक हैं:
अवगुंठिनी मुद्रा : बाएं हाथ की मुट्ठी बंदकर तर्जनी को अलग निकाल लें या दोनों तर्जनियों को आपस में संयुक्त कर अग्नि के निकट घुमाने पर अवगुंठिनी मुद्रा होती है। हवन के निमित्त मृगी, हंसी और शूकरी ये तीन मुद्राएं प्रमुख मानी जाती हैं। मृगी : कनिष्ठिका और तर्जनी को मिला देने से मृगी मुद्रा बनती है। शूकरी : सभी अंगुलियों को एक साथ मिलाकर हवन करने पर शूकरी मुद्रा कही जाती है। आभिचारिक कर्मो में शूकरी तथा शांतिकरण हेतु तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर हवनीय द्रव्य से आहुति प्रदान करें। दाह, ज्वर, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण में अनामिका तथा अंगूठे के द्वारा आहुति देनी चाहिए। हर प्रकार की विघ्न-बाधाओं की शांति के लिए तर्जनी एवं मध्यमा से तथा भूत-प्रेतादि भय के निवारणार्थ तर्जनी, मध्यमा और अंगूठे की मुद्रा से हवन कर्म करना उत्तम फलदायी होता है।
आकर्षण, मोहन, उच्चाटन, क्षोभण आदि कर्मो के लिए कनिष्ठा, मध्यमा तथा अंगूठे की सहायता से बनी मुद्रा के द्वारा अग्नि में आहुति दें। किसी प्रवासी व्यक्ति को स्वदेश बुलाने के लिए हवन में तर्जनी और अनामिका अंगुली के प्रयोग करना चाहिए। उक्त प्रकार की मुद्रा से हवन करने पर शारीरिक आरोग्यता, कांति, ओज, पुष्टि तथा उत्साहवर्धन होता है।