बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों के कानूनी दावे का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मुश्ताक अहमद सिद्दकी ने इस अर्जी पर अदालत से अपनी बात रखने की पेशकश की. जज ने कहा, उन्हें सुना जाएगा. पर उन्हें बिना सुने ही उसी शाम 4.40 पर जज साहब फैसला सुना देते हैं. इस फैसले में कहा गया, ‘अपील की इजाजत दी जाती है.
प्रतिवादियों को गेट संख्या ‘ओ’ और ‘पी’ पर लगे ताले तुरंत खोले जाने का निर्देश दिया जाता है. ‘प्रतिवादी आवेदक और उनके समुदाय को दर्शन और पूजा आदि में कोई अड़चन या बाधा नहीं डालेंगे.’ इस इमारत में दो गेट थे. जिला प्रशासन ने अपनी सुविधा के लिए उनके नाम ‘ओ’ और ‘पी’ रखे थे.
जिला जज के इस फैसले के बाद डी.एम. और एस.एस.पी. जिला जज को पहुंचाने उनके घर जाते हैं. जज साहब की सुरक्षा बढ़ा दी जाती है. फिर चालीस मिनट के भीतर ही पुलिस की मौजूदगी में ताला तोड़ दिया जाता है और अंदर पूजा-पाठ, कीर्तन शुरू हो जाता है.
अब जरा सरकार की मंशा देखिए. अगर अदालत ने यह फैसला दे ही दिया, तो प्रशासन की क्या जिम्मेदारी थी? क्या इतना संवेदनशील फैसला सिर्फ कानून या न्यायालय के हवाले छोड़ा जा सकता था? जिला प्रशासन का दायित्व नहीं था कि वह राज्य सरकार को भरोसे में लेता. उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि दोनों सरकारों से उन्हें निर्देश मिल रहे थे.
अब सवाल उठता है, क्या इस फैसले के पीछे सिर्फ मेरिट ही थी या कुछ और? आप यह सुन चौंक जाएंगे कि इस फैसले के पीछे भावना, आस्था और ईश्वर के रूप में एक बंदर भी था. फैजाबाद के तब के जिला जज कृष्णमोहन पांडेय ने बात-बात में खुद ही यह भेद खोला.
पांडेय जी साल 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-“जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैग पोस्ट को पकड़कर बैठा रहा. वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे, पर बंदर ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैठा रहा. मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वह वहां से गया. फैसले के बाद जब डी.एम. और एस.एस.पी. मुझे मेरे घर पहुंचाने गए, तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने उसे प्रणाम किया. वह कोई दैवीय ताकत थी.”
इसी भक्ति-भावना से अभिभूत हो जज साहब ने ताला खोलने का फैसला लिखा. याचिकाकर्ता उमेश चंद्र पांडेय बताते हैं उत्तेजना में उस रात वे सो नहीं सके थे. सारी रात उन्होंने जन्मस्थान में कीर्तन करते हुए गुजारा, दूसरे दिन सुबह वे घर जा पाए.
जज कृष्णमोहन पांडेय धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. रिटायर होने के बाद वे लखनऊ के न्यू हैदराबाद कॉलोनी में रहते थे. शाम को गोमती के किनारे बांध पर टहलते हुए मेरी अकसर उनसे मुलाकात हो जाती थी. धर्म और अध्यात्म के बारे में वे खूब बातें करते.
उन्होंने मुझे अपने फैसले के पीछे बंदर और दैवीय प्रेरणा की ‘थ्योरी’ विस्तार से सुनाई. यह भी बताया कि इस फैसले के रूप में दैवीय प्रेरणा के सम्मान की सोच ने उन्हें भीतर से बहुत संतुष्टि दी.