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रीवा में बैठकर एक फ़ोन से हिला देते थे राजधानी : पढ़िए कद्दावर नेता स्व श्रीनिवास तिवारी जन्मदिन स्पेशल स्टोरी

रीवा।  ‘दादा न हो दऊ आय, वोट न द्या तऊ आय’ नारा यह नारा आज भी लोगों के जहन में गूंजता है, जी हां आज हम स्टोरी ऑफ द डे में बात करने वाले हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और कांग्रेस के कद्दावर नेता स्व श्रीनिवास तिवारी (Sriniwas Tiwari) के बारे में। जिन्हें प्रदेश में ‘सफेद शेर’ के नाम से भी जाना जाता था। लोग प्यार से उन्हें दादा श्रीनिवास बुलाते थे। उनसे जुड़े कई ऐसे किस्से हैं जिसे आज भी लोग बड़े चाव से सुनाते हैं। विंध्य क्षेत्र के लिए सदैव खड़े रहने के कारण उन्हें विंध्य पुरुष भी कहा जाता है। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता और विधानसभा के स्व.पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी स्वभाव से निर्भीक, गहरी राजनीतिक समझ, प्रभावी वक्ता, संसदीय ज्ञान, वचन के पक्के और समाजवाद के पोषक थे। उनके कामकाज की शैली के चलते उनके चाहने वाले उन्हें ‘WHITE TIGER” कहने लगे थे।

छात्र जीवन से राजनीति:

उनका जन्म 17 सितंबर 1926 को तिवनी ग्राम के किसान मंगलदीन तिवारी के घर हुआ था। माता कौशिल्या देवी थीं। सतना जिले के झिरिया ग्राम के रामनिरंजन मिश्र की बेटी श्रवण कुमारी से विवाह हुआ। उनके दो पुत्र अरुण एवं सुंदरलाल तिवारी हुए। अरुण अब नहीं रहे। सुंदरलाल गुढ़ से विधायक हैं। अरुण के बड़े पुत्र विवेक तिवारी जिपं सदस्य रह चुके हैं। छोटे पुत्र वरुण युवा कांग्रेस के जिलाध्यक्ष हैं। श्रीनिवास ने शिक्षा मनगवां बस्ती के विद्यालय से आरंभ की। सन 1950 में दरबार कालेज रीवा से एलएलबी एवं 1951 में हिन्दी साहित्य से एमए किया। छात्र जीवन से राजनीति की।

कक्षा 8वीं में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े:

श्रीनिवास तिवारी कक्षा 8वीं में मार्तण्ड स्कूल का छात्र रहते हुए स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे। दरबार कॉलेज में भी डिबेटिंग क्लब बनाया। कॉलेज के अध्यक्ष रहे। डॉ. लोहिया का सानिध्य भी मिला। जमींदारी प्रथा का जमकर विरोध किया। कृष्णपाल सिंह, ओंकारनाथ खरे, श्रवण कुमार भट्ट, चन्द्रकिशोर टंडन, हरिशंकर, मकरंद सिंह, मथुरा प्रसाद गौतम, ठाकुर प्रसाद मिश्र, सिद्धविनायक द्विवेदी, जगदीश चन्द्र जोशी, यमुना प्रसाद शास्त्री, चन्द्रप्रताप तिवारी, अच्युतानंद मिश्र, महावीर सोलंकी, शिवकुमार शर्मा तथा लक्ष्मण सिंह तिवारी का साथ मिला। 1948 तक 50 फीसदी किसान जमीन से बेदखल किए जा चुके थे। श्रीनिवास तिवारी, यमुना प्रसाद शास्त्री और जगदीश जोशी ने संयुक्त एवं पृथक रूप से रीवा एवं सीधी का दौरा किया और संगठन बनाकर निर्णय वापस लेने की मांग की। 1948 में सरकार ने टेनेंसी एक्ट में संशोधन की घोषणा की।

ऐसे लड़े थे पहला चुनाव:

समाजवादी पार्टी से 1952 के प्रथम आमचुनाव में मनगवां विधानसभा क्षेत्र से भारी आर्थिक संकट में चुनाव लड़ा। तिवनी के स्व. कामता प्रसाद तिवारी ने धन की व्यवस्था की और सोना गिरवी रखकर रकम चुनाव लडऩे के लिए सौंप दी। चुनाव लड़ा और तिवारी पहली बार विधायक चुने गए।

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1957 से 1972 तक किया संघर्ष:

1952 से 1957 तक तिवारी सदन में विपक्ष की भूमिका में रहे। 1957 से 1972 तक राजनीति का संक्रमण काल था। लगातार तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से पराजित हुए। 29 नवंबर 1967 को भूमि विकास बैंक के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 31 दिसंबर 1974 को केंद्रीय सहकारी बैंक के संचालक मंडल के अध्यक्ष बने। चंदौली सम्मेलन, विकास, युवक प्रशिक्ष शिविर, पूर्व विधायक दल सम्मेलन, जन चेतना शिविरों के माध्यम से सक्रियता बनाए रखी। 1985 में टिकट नहीं मिलने से चुनाव नहीं लड़ पाए थे। कहा था कि टिकट का न मिलना कांग्रेस के शीर्षस्थ नेतृत्व का कारण नहीं अवरोध है।

संसदीय मामलो के ज्ञाता थे:

बोल्ड आवाज के धनी श्रीनिवास जब विधानसभा में अध्यक्ष थे तो उनका सदन और सरकार पर बराबर नियंत्रण था। वे संसदीय मामलो के ज्ञाता थे। उन्होंने इस पद पर रहते हुए स्वयं भी मर्यादा का पालन किया और सरकार को भी मर्यादा में रखना सिखाया। वो हमेशा से विंध्य प्रदेश को लेकर अवाज बुलंद की। जब विंध्य का विलय मध्य प्रदेश में किया गया था। उससे पहले सदन में हुए बहस में उन्होंने लगातार 5 घंटों तक अगल विंध्य के लिए भाषण देखर लोगों को हैरान कर दिया था। जब वो भाषण दे रहे थे तो पूरा सदन उनकी बातों को मौन होकर सुन रहा था।

इंदिरा-अटल ने माना था “शेर”

वर्ष 2003 में विधानसभा चुनाव का प्रचार करने रीवा आए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी श्रीनिवास तिवारी का उल्लेख अपने भाषण में किया था। वाजपेयी की सभा में पहुंचने के रास्ते तिवारी के समर्थकों ने जाम कर दिए थे। तब उन्होंने सफेद शेर कहकर तिवारी पर कटाक्ष किया था। इसके पहले यूपी के चंदोली में 1973 में इंदिरा गांधी ने श्रीनिवास तिवारी को रियल टाइगर कहा था। चंदोली में ही तिवारी ने कांग्रेस ज्वाइन की थी।

अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के बीच में थी प्रतिद्वंद्विता:

स्व. श्रीनिवास तिवारी और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह (Arjun Singh) के किस्से भी आम है। दोनों नेता विंध्य क्षेत्र से आते थे। यही कारण है कि कांग्रेस में दोनों की प्रतिद्वंद्विता काफी आम थी। लेकिन, दोनों नेता एक-दूसरे की विद्वता का भी सम्मान करते थे। एक पार्टी में होने के बाद भी विंध्य क्षेत्र में दोनों नेताओं का अलग-अलग जनाधार था। इस कारण से दोनों नेताओं पर जातीगत राजनीति करने का भी आरोप लगता रहा।

दबंग आवाज के धनी थे श्रीनिवास:

स्व.श्रीनिवास की दो खासियत लोगों को हमेशा आकर्षित करती रही। एक उनका सफेद और भारी भौंहे और दूसरा उनका दबंग आवाज। वो जब बोलते थे तो सामने वाला उन्हें सुनने से रोक नहीं पाता था। जब वो सदन में भी बोलने के लिए खडे होते थे तो पूरा सदन उनकी बातों में खो जाता था। एक बार तो विधानसभा में बिजली चली गई और वो भाषण दे रहे थे। उनके जगह पर कोई और नेता होते तो वो बिना माइक के बैठ जाते। लेकिन श्रीनिवास ने भाषण देना जारी रखा और लोग उन्हें सुनते भी रहें।

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फैसला लेने के लिए भोपाल आने का नहीं करते थे इंतजार

स्व. श्रीनिवास जब भी रीवा आते थे तो अपने आवास पर ही प्रदेश या क्षेत्र से जुड़े निर्णय लिया करते थे। वो कभी भी इसके लिए भोपाल पहुंचने का इंतजार नहीं करते थे। प्रशासन के लोग भी उनके इस कार्यशैली का सम्मान करते थे। रीवा में वह अपने आवास के बरामदे में एक तख्त पर बैठ जाते थे और वहीं से लोगों की समस्याओं का समाधान किया करते थे। सत्ता के लोग भी उन्हें वहीं फाइल दिखाया करते थे। तब राजनीतिक जानकार कहा करते थे कि प्रदेश में दो मुख्यमंत्री हैं। एक भोपाल में बैठते हैं और दूसरा रीवा मे।

पद की गरिमा का हमेशा रखा ख्याल:

वो जब विधानसभा अध्यक्ष थे तो उन्होंने इस पद की गरिमा का हमेशा ख्याल रखा। वो अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी काम के लिए मुख्यमंत्री के कक्ष या बंगल तक नहीं गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) उनके पास ही मंत्रणा और निर्णय के लिए जाया करते थे। उन्होंने सरकार से लेकर विपक्ष तक को विधानसभा में मर्यादा का पाढ पढ़ाया। वो सदन में हर विधायक और मंत्री की बात ध्यान से सुनते थे। अगर कोई सदस्य अधूरा जवाब देता था तो उसे टोकते हुए वह स्वयं इसे पूरा कर देते थे।

समर्थक लगाते थे नारा:

वहीं अगर उनके चुनावी सफर की बात करें तो साल 1998 के चुनाव में उनके लिए समर्थकों ने एक नारा दिया, जो पूरे प्रदेश में मशहूर हुआ। उनके समर्थक ग्रामीण मतदाताओं को लुभाने के लिए और उन्हे श्रीनिवास के जीत के प्रति आश्वस्त करने के लिए बघेली में एक नारा देते थे। ‘दादा न हो दऊ आय, वोट न द्या तऊ आय’ इसका हिंदी में मतलब था दादा नहीं भगवान हैं, वोट दे या नहीं जीतेंगे तो वही और हुआ भी कुछ ऐसा ही उन्होंने इस चुनाव में जीत हासिल की।

1948 में बनाई थी समाजवादी पार्टी:

श्रीनिवास तिवारी ने विद्यार्थी जीवन में स्‍वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। सन 1948 में विंध्‍य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का गठन किया तथा सन 1952 में समाजवादी पार्टी के प्रत्‍याशी के रूप में विंध्‍य प्रदेश विधान सभा के सदस्‍य निर्वाचित हुए। जमींदारी उन्‍मूलन के लिए अनेक आंदोलन संचालित किए तथा कई बार जेल यात्राएं की।

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सोना गिरवी रखकर चुनाव लड़वाया:

बताते हैं कि समाजवादी पार्टी से 1952 के प्रथम आम चुनाव में जब श्रीनिवास तिवारी को मनगवां विधान सभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया गया तब उनके सामने भारी आर्थिक संकट था। यह समस्या थी कि चुनाव कैसे लड़ा जाए? ऐसे में गांव के कामता प्रसाद तिवारी नाम के एक व्यक्ति उनकी मदद के लिए आगे आए थे। उन्होंने अपने घर का सोना रीवा में 500 रुपये में गिरवी रखकर रकम श्रीनिवास तिवारी को चुनाव लड़ने के लिए सौंप दी। इसी धन राशि से चुनाव लड़ा गया और जीत हासिल की।

इंदिरा गांधी के कहने पर कांग्रेस पार्टी में हुए थे शामिल:

सन 1972 में समाजवादी पार्टी से मध्‍यप्रदेश विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए। सन 1973 में इंदिरा गांधी के कहने पर कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। सन 1977, 1980 एवं 1990 में विधान सभा के सदस्‍य निर्वाचित। सन 1980 में अर्जुन सिंह के मंत्रिमंडल में लोक स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण विभाग के मंत्री रहे।

अर्जुन सिंह सरकार से इस्तीफा दिया:

1977 में विधायक चुने जाने के बावजूद विपक्षी पार्टी की सरकार बनने की वजह से उन्हें कोई बड़ा पद नहीं मिल सका। 1952 में विधायक चुने गए श्रीनिवास तिवारी पहली बार 1980 में अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल में मंत्री पद से नवाजे गए। हालांकि, बाद में इस्तीफा देकर वह विधायक के रूप में ही सेवाएं करते रहे थे।

दिग्विजय सिंह ने दिया सम्मान:

1985 में टिकट काटने की कवायद के बावजूद विंध्य का यह ‘सफेद शेर’ मुश्किलों के आगे झुका नहीं। 1990 में चुनाव जीतने के बाद वह विधानसभा उपाध्यक्ष बनाए गए। 1993 में दिग्विजय सिंह के सत्ता में काबिज होने के बाद 10 साल तक वह विधानसभा अध्यक्ष रहे थे। 2008 में विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद उन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन को कमजोर नहीं होने दिया था।