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महाराष्ट्र चुनाव: शिवाजी, आंबेडकर, बाल ठाकरे के स्मारकों की राजनीति

वर्तमान राजनीति हमेशा इतिहास मे झांकती है और भावनाओं को पुकारकर वोट हासिल करना चाहती है. महाराष्ट्र भी अपवाद नहीं है. महाराष्ट्र जब चुनाव का अखाड़ा बन चुका है, चुनावी राजनीति तीन स्मारकों के इर्द-गिर्द घूम रही है.

इन तीनों ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का महाराष्ट्र के सामाजिक और राजनैतिक जीवन पर ऐसा प्रभाव है कि इनके स्मारक भी राजनीति का हिस्सा बन चुके है.

इनमें से कोई भी स्मारक पूरा नहीं हुआ है लेकिन उन पर राजनीति ख़त्म नहीं होती.

ये तीन स्मारक हैं: छत्रपति शिवाजी महाराज का अरब सागर में बनने वाला स्मारक, बाबासाहब आंबेडकर का मुंबई के इंदु मिल में बनने वाला घोषित स्मारक और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का मुंबई के मेयर बंगले में बनने जा रहा स्मारक.

इस चुनाव पर भी इन स्मारकों का सियासी मुद्दा असर डालेगा.

दुनिया में सबसे बड़ी शिवाजी की स्टैच्यू

इसमें दो राय नहीं है कि छत्रपति शिवाजी महाराज महाराष्ट्र के इतिहास का सबसे बड़े किरदारों में से एक हैं. 16वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य की नींव रखने वाले शिवाजी को महाराष्ट्र में भगवान की तरह पूजा जाता है.

1960 में महाराष्ट्र राज्य बनने के बाद यहां की चुनावी राजनीति मे छत्रपति शिवाजी का उल्लेख हमेशा आता रहा है.

मुगल सल्तनत के ख़िलाफ़ युद्ध करने वाले सेनानी जैसी शिवाजी की ‘हिंदुत्व वाली’ छवि हमेशा शिवसेना-भाजपा जैसे राजनैतिक दलों को अच्छी लगी है.

वहीं ‘मराठा’ राजा की छवि कांग्रेस-एनसीपी जैसे दलों को राज्य की मराठा समुदाय को अपनी ओर खींचने के लिए मददगार साबित हुई है.

छत्रपति शिवाजी के जुड़े मुद्दों से महाराष्ट्र मे सरकारें बनी हैं और गिरी हैं.

ऐसे छत्रपति शिवाजी महाराज का ‘दुनिया की सबसे बड़ी’ मूर्ति पिछले कुछ वर्षों से राजनीति की केंद्र बनी हुई है.

बजट बढ़ता गया मगर स्मारक नहीं बना

1996 से चर्चा में आए इस छत्रपति शिवाजी के स्मारक का वादा सत्ता में आए हर दल की सरकार ने किया है लेकिन आज वह पूरा नहीं हो पाया है और विपक्षी दल हमेशा उसे मुद्दा बनाते आए हैं.

1996 में जब शिवसेना-भाजपा की सरकार महाराष्ट्र में थी तब तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने मुंबई में छत्रपति शिवाजी का स्मारक बनाने का ऐलान किया था और गोरेगांव में फ़िल्म सिटी के नज़दीक जगह देने का वादा भी किया था.

बाद में शिवसेना की सरकार चली गई लेकिन कांग्रेस के विलासराव देशमुख की सरकार ने भी 1999 में इस स्मारक को मंज़ूरी दे दी. तब 20 एकड़ ज़मीन पर बनने वाले इस स्मारक के लिए 70 करोड़ रुपये का ख़र्च अपेक्षित था.

हालंकि उसके बाद आए 2004 के चुनाव से पहले महाराष्ट्र की राजनीति बदल गई थी.

जेम्स लेन की विवादित किताब को लेकर छत्रपति शिवाजी फिर से महाराष्ट्र मे चर्चा की केंद्र मे आए थे और उस का राजनैतिक असर भी पड़ा. इसी दौरान उस समय मुख्यमंत्री बने सुशील कुमार शिंदे ने यह शिवाजी स्मारक मुंबई के अरब सागर में बनाने का ऐलान किया.

2009 में कांग्रेस ने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया. तब तक इस स्मारक का ख़र्च 700 करोड़ पहुंच चुका था.

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अस्मिता की राजनीति

इसके बाद से ‘शिव स्मारक’ हमेशा चर्चा में बना रहा. कुछ संगठन पर्यावरण के मुद्दे पर अदालत चले गए तो कुछ संगठन समर्थन में रास्ते पर उतर आए. इस स्मारक को लेकर महाराष्ट्र की भावनाएं हमेशा हावी रहीं.

2014 तक कुछ भी नहीं हुआ तो शिवसेना और भाजपा ने शिव स्मारक को चुनावी मुद्दा बना लिया और अपनी सरकार आते ही उसे पूरा करने का वादा भी किया.

जब भाजपा की सरकार आ गई तो 2015 मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरब सागर में बनने वाले इस स्मारक का जलपूजन भी किया.

भाजपा सरकार ने इस स्मारक की छत्रपति शिवाजी महाराज की मूर्ति की ऊंचाई 192 मीटर से 212 मीटर करने का प्रस्ताव भी रखा. अब उसे दुनिया का सबसे बड़ा स्टैच्यू बनाने का दावा भी किया गया.

देवेंद्र फडणवीस सरकार ने इस स्मारक के लिए 3,644 करोड़ रुपये का फ़ंड मंज़ूर कर दिया. हालांकि जनवरी 2019 में ‘द कन्जर्वेशन एक्शन ट्रस्ट’ नाम का संगठन सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया. उसके बाद से स्मारक के काम को स्थगित कर दिया है.

हालांकि अब चुनाव की सरगर्मियों के बीच शिव स्मारक का मुद्दा फिर एक बार चुनाव में आ गया है.

स्मारक तो बना नहीं लेकिन चुनावी मौसम मे विपक्षी दल सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं. कांग्रेस और एनसीपी ने मिलकर अपने बयान में भाजपा-शिवसेना सरकार पर 1,000 करोड़ रुपये का घोटाला करने का आरोप लगाया है.

महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रवक्ता सचिन सावंत ने ट्वीट किया है, “शिव स्मारक के टेंडर की क़ीमत 2692.50 करोड़ रुपये थी लेकिन L&T कंपनी के टेंडर की क़ीमत 3826 करोड़ यानी 42 फ़ीसदी अधिक थी इसलिए री-टेंडरिंग होना ज़रूरी था लेकिन L&T ने बढ़ाई हुई कीमत कम करके सरकार का फ़ायदा किया है.”

इस पर भाजपा के मंत्री चंद्रकात पाटील ने जवाबी ट्वीट किया, “शिव स्मारक का वादा पूरा न कर पाने वाली कांग्रेस-एनसीपी का भाजपा सरकार के काम में दोष निकालना नामुमकिन है.”

छत्रपति शिवाजी और शिव स्मारक महाराष्ट्र में भावनात्मक मुद्दा है. वर्षों से राजनीति पर असर डालता यह मुद्दा इस बार फिर से चुनावी मैदान में आ चुका है.

अब गुजरात के छत्रपति शिवाजी की यह प्रतिमा सरदार पटेल के ‘स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी’ से भी ऊंची और दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति होगी, ऐसा कहकर अस्मिता की राजनीति की जा रही है.

‘इंदु मिल’ का डॉक्टर आंबेडकर स्मारक

जितना भावनात्मक और अहम शिवस्मारक का मुद्दा है उतना ही अहम और पुराना है मुंबई के डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के स्मारक का मुद्दा. यह प्रस्तावित स्मारक पिछले कई चुनावों से मुद्दा बनता आ रहा है और इस बार का चुनाव भी अपवाद नहीं है.

डॉक्टर आंबेडकर से जुड़े मुद्दे देश की राजनीति पर, ख़ासकर दलित वोटों पर सीधा असर डालते हैं. आंबेडकर के शहर और राज्य यानी मुंबई और महाराष्ट्र में इस स्मारक का मुद्दा सालों से राजनीति पर प्रभाव डालता आ रहा है.

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जिस स्मारक की बात होती आ रही है वह मुंबई के दादर इलाके के ‘इंदु मिल’ में प्रस्तावित स्मारक है.

जहां डॉक्टर आंबेडकर के महा परिनिर्वाण के बाद उनकी अंतिम क्रिया हुई, उसी ‘चैत्यभूमि’ के नजद़ीक मिल में यह स्मारक बननेवाला है.

दलित वोटों पर इस मुद्दे का प्रभाव है इसलिये हर सरकार यह स्मारक पूरा करने का बीड़ा उठाती है. फिर भी यह आज तक पूरा नहीं हो पाया है.

1986 से इस स्मारक की मांग उठती रही है लेकिन मुद्दे ने तूल तब पकड़ा जब 2000 में जब सुशील कुमार शिंदे मुख्यमंत्री थे, तब हुए चुनाव मे कांग्रेस ने इंदु मिल के स्मारक को घोषणापत्र में शामिल किया.

दलित वोटों का मसला

कांग्रेस की सरकार वापस सत्ता मे आ गई मगर इंदु मिल के स्मारक की घोषणा क़ागज पर ही रह गई.

2009 के चुनाव में मुद्दा फिर से गरमाया और वादे किए गए. चुनाव के बाद इस स्मारक की मांग पर आंदोलन भी छेड़ा गया. 2011 में आनंद राज आंबेडकर 26 दिनों के लिए इंदु मिल में घुस गए.

बाद में सरकार ने संसद में भी इस स्मारक का ऐलान किया क्योंकि इंदु मिल की जगह केंद्रीय वस्त्रोद्योग मंत्रालय की ज़िम्मेदारी थी.

2014 के चुनाव में भाजपा ने भी यह मुद्दा चुनाव के दौरान उठाया और उनकी सरकार आने के बाद इंदु मिल की जगह स्मारक के लिए दे दी गई.

2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूमि पूजन भी किया. स्मारक का डिजाइन भी बनवाया गया और एमएमआरडीए से काम भी आगे ले जाने के लिए कहा गया. इन सबके बावजूद स्मारक का काम अभी भी पूरा नहीं हुआ है.

सरकार का दावा है की वह 2020 तक डॉक्टर आंबेडकर स्मारक का काम पूरा कर देगी. फ़िलहाल भावनाओं से भरा यह मुद्दा चुनाव के घोषणापत्र में फिर से शामिल कर दिया गया है.

106 मीटर ऊंचा स्टैच्यू इस स्मारक का आकर्षण होगा जिसके लिए सरकार ने 763 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं.

बाल ठाकरे का स्मारक

2012 में शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का निधन होने के बाद ही उनके स्मारक का मुद्दा शिवसेना ने उठाया है.

ख़ासकर ठाकरे को लेकर मुंबई मे शिवसेना के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में जो भावना है, वह हमेशा से शिवसेना का सियासी कार्ड रहा है. इसीलिए जहां ठाकरे की सभाएं और कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी उस मुंबई के दादर इलाके के शिवाजी पार्क मे ही उनका स्मारक हो, ऐसी मांग शिवसेना की रही है.

जब कांग्रेस की सरकार थी तब और बाद में 2014 में भाजपा-शिवसेना की सरकार आने के बाद भी यह मांग शिवसेना के कार्यकर्ताओं के लिए अहम मुद्दा रहा. 2012 में ठाकरे के बाद जो भी चुनाव हुए हैं उसमें मुंबई में इस स्मारक के मुद्दे का असर देखने को मिला है.

यह स्मारक किस जगह पर हो, इस पर विवाद होने का बाद भाजपा की सरकार ने शिवाजी पार्क के मुंबई के मेयर बंगले को इस स्मारक मे तब्दील करने की अनुमति दे दी.

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सरकार अब ‘एमएमआरडीए’ की तरफ़ से क़रीब 100 करोड़ रुपये में इस स्मारक का निर्माण करेगी. इससे पहले शिवाजी पार्क में, जहां ठाकरे का अंतिम संस्कार हुआ, वहां एक छोटे स्मारक का निर्माण पहले से हुआ है.

स्मारक और भावनाओं की राजनीति

क्या इन स्मारकों का चुनावी सियासत पर असर पड़ता है?

इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार मधु कांबले कहते हैं, “चुनाव के दौरान इन स्मारकों का मुद्दा चर्चा में आ जाना, इससे यही स्पष्ट होता है की राजनैतिक दलों को स्मारकों के पिछे से राजनीति ही करनी है. नहीं तो ये मुद्दे क्यों आते? इन मुद्दों का ज़िक्र चुनावी घोषणापत्र में होने का कोई अन्य कारण भला क्या हो सकता है? इन महापुरुषों से जुड़ी भावनाओं का फ़ायदा उठाकर वोट हासिल करना, यही एकमात्र मक़सद है.”

महाराष्ट्र की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हेमंत देसाई कहते हैं कि स्मारकों के लिए जो भावनाएं हैं, उनसे पूरी राजनीति नहीं बदल सकती लेकिन ये वोट जुटाने के लिए ज़रूर असरदार है.

देसाई के मुताबिक़, “शिवस्मारक हो या बाबासाहब आंबेडकर का स्मारक, 2014 से भाजपा यह बता रही है कि पिछली कांग्रेस सरकार ने कुछ नहीं किया. ऐसा कहकर छत्रपति शिवाजी और आंबेडकर पर भाजपा अपनी दावेदारी बढ़ा रही है. गुजरात में सरदार पटेल का स्टैच्यू बनाकर कर भाजपा यही कह रही है कि राष्ट्रीय एकीकरण की ज़िम्मेदारी वही निभा रही है.”

देसाई का मानना है कि बाल ठाकरे के स्मारक को लेकर शिवसेना भी भावनाओं की राजनीति करती आ रही है.

सिर्फ़ यही तीन स्मारक नहीं, पिछले कुछ वर्षों में अन्य ऐतिहासिक व्यक्तियों के स्मारक भी राजनीतिक विवादों में रहे हैं और उन्हे लेकर ध्रुवीकरण की राजनीति हुई है.

छत्रपति शिवाजी की रियासत के प्रबंधक रहे दादाजी कोंडदेव की प्रतिमा हो या फिर कई ऐतिहासिक नाटक लिखने वाले नाटककार राम गणेश गडकरी का पुणे का स्मारक, इन्हें लेकर आंदोलन हुए. राजनैतिक दलों ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए.

अब चुनाव लौटकर आए हैं और स्मारकों ने चुनावी घोषणाओं में फिर से जगह हासिल कर ली है.